Tuesday, 9 August 2022

एक हॉस्टल नाम का पिंजरा था

एक हॉस्टल नाम का पिंजरा था

जहाँ हम सब क़ैद थे
मगर
आज़ादी-सा अनुभव होता था,
वहाँ बचपन का प्यार था
दोस्तों का साथ था
उनकी झिड़कियां
उनका अल्हड़पन बेशुमार था,
शिक्षकों की डांट में
छुपी काफ़ी हिदायते थी,
मेस में खाना खाने के लिए
लगी लाइन थी
उस लाइन में गजब की
धक्का-मुक्की थी,
वहाँ बड़ा-सा खेल मैदान था
उसमें खेलता बचपन
बहुत चंचल,बहुत बेफिक्र था,
वो जीवन
चारदीवारी के भीतर था
लांगकर उसको बाहरी दुनिया
देखने की एक चाहत थी,
मगर
जब लांग लिया उस दिवार को
तो
लगा हमारी साँसों को किसी ने
क़ैद कर लिया है,
फ़िर से उसके भीतर, उस क़ैद में
जाने की आरजू है
सबकुछ फ़िर से शुरू से शुरू करने
की
एक ख़्वाहिश हर रोज पल्लवित
होती रहती है,
उस जेल में
उम्र तमाम करने की एक लालसा
हर पल जन्म लेती है!!

द्वारा - नीरज 'थिंकर'

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