Tuesday 31 December 2019

कविता-बहुत देर तक

बहुत देर तक
बिना रुके,
बिना थके
शहर की हर गली में
चलता रहा ...,
उन नज़ारों को
आँखों में बसाता रहा.....
मेरा ये चलना
और शहर की
ख़ाक छानना
व्यर्थ तो नहीं है
मैं चलकर
क़दमों से उन
एहसासों को
भर लेना चाहता था
जिसमें कभी हर्ष
हर्षोंलासित हो
झूम जाया करती होगी,
उसके उन तमाम
सुनहरे पलों को
मैं अपने साथ ले जाना
चाहता था
इन्हें ले जाकर
 अपने में समाकर
कुछ नूतन रूप में
उसके संग जीना चाहता था
इसीलिए तो मैं
बिना रुके,बिना थके
साँसों को थामे
बेखोफ,बेपरवाह हो
चलता रहा ।

द्वारा - नीरज थिंकर

घर की याद किसको नहीं आती है !

घर की याद किसको नहीं आती है, चाहे घर घास-फुस का हो या फ़िर महलनुमा हो घर की याद किसको नहीं आती है, जहाँ माँ हर वक़्त राह देखती हो, पिता जहाँ ख़...