Tuesday 9 August 2022

घर की याद किसको नहीं आती है !

घर की याद किसको

नहीं आती है,

चाहे घर घास-फुस का
हो
या
फ़िर महलनुमा हो
घर की याद किसको
नहीं आती है,
जहाँ माँ हर वक़्त राह
देखती हो,
पिता जहाँ ख़ुद को भूल
सबकी फ़िक्र करते हो,
जहाँ बूढ़ी दादी
और
बुढ़े दादाजी जी
क्षण-क्षण में चिंतित होकर
रोने लगते हो,
पड़ोसी जहाँ तमाम लड़ाइयो 
के बावजूद
सुःख-दुःख में शरीक होते हो,
तब
घर की याद किसको
नहीं आती है?

द्वारा - नीरज 'थिंकर'

एक हॉस्टल नाम का पिंजरा था

Tuesday 7 June 2022

अपनी दुनिया

रोज बनती बिगड़ती
कहानियों और किस्सों के बिच 
मैं भी थोड़ा बनता हूँ 
और बिगड़ता हूँ, 
आते जाते राहगीरों में ख़ोज 
ख़ुद का अक्ष थोड़ा
मैं भी राहगीर बनता हूँ, 
किसी जगह को अपना बना 
मैं एक सांस हर रोज उसमें
भरता हूँ, 
किसी अनजान को देख
कुछ कुछ उसको अपने 
किसी खास से जोड़ 
मैं अंदर ही अंदर मुस्कुराता हूँ, 
कभी किसी चीज़ को देखकर 
कुछ स्मृतियाँ जब लौट आती है 
तब मैं थोड़ा रोता हूँ तो 
उसी पल थोड़ा हंसता हूँ, 
जब सब कुछ 
नीरस लगने लगता है 
तब किताबों को रख कर दूर 
ख़ुद को पढ़ने की 
कोशिश मैं करता हूँ, 
मैं हर रोज थोड़ा जीता हूँ 
थोड़ा मरता हूँ!! 



 द्वारा- नीरज 'थिंकर'

Sunday 27 March 2022

मेरी माँ जब रोटी पकाती है

Pic courtsey- Neeraj 'Thinker'
मेरी माँ जब

रोटी पकाती है,
ख़ुद जलकर
रोटी को जलने से
जब वो बचाती है
तब
वह सिर्फ़ रोटी नहीं
बचा रही होती है
वह बचा रही होती है
अपने पति के गुस्से को
वह मिटा रही होती है
अपने बेटे की भूख को
वो रसोई के अंदर
बचपन से जल रही है
मगर
जलते हुए खुरदरे हाथों
से जब वो
गर्म रोटी पर घी लगाती है
फ़िर थाली में परोसती है
तब उसका झुरियों वाला
चेहरा मुस्कुराता है
यें सोचकर कि
उसने अपना काम
बेखुबी निभा दिया है
वह पहले खेत में पसीना
बहाती है
गेहूँ कि फसल उगाती है,
उनको माँ की तरह पानी पिलाती है
उनमें खाद डालती है
जो उसने रोज इक्कठा
करके जमाया था,
फ़िर वो उसे रोज
आधी अधूरी रोटी खा कर
काटती है
कटे हुए गेहूँ की फसल को
घर लाती है
फ़िर उसमें से गेहूँ के दाने
अलग करती है
उन्हें धुप में सुखाती है
फ़िर उनको साफ करके
पिसती है
गेहूं के आटे को छलनी से छानकर
वो उसे गूंथथी है
फ़िर मेरी माँ उससे इतनी गोल
रोटी बनाती है कि
एक बार के लिए
आँखें भी धोखा खा जाए,
जुल्हे को जलाये रखने के
लिए वो ख़ुद जली
अपनी साँसो को उसमें फूंका
मगर उसने सबकी भूख
मिटाये रखा!!

द्वारा - नीरज 'थिंकर'

Sunday 13 March 2022

क्या फ़िर से !!


क्या फ़िर से वो पल   
मुझें मिल पायेंगे?
जिसका मुझें 
बरसों से गुमान था,
तुम साथ थी
तुम्हारी आँखें रूबरू
मुझसे कुछ कहती थी,
किसी पार्क में बैठे हुए
तुम किसी फुल-सी
खिलतीं थी,
मेरा हाथ तुम्हारे हाथ में
होता था
ज़्यादा प्यार आने पर
मैं, तुम्हारे माथे को
चूम लिया करता था,
तमाम लोगों के बीच  भी
मुझें सिर्फ़ तुम ही नज़र
आती थी,
स्कूल कि चारदीवारी में
मैं, तुम्हें ही ढूंढता फिरता था
तुम्हारा दीदार हो जाने पर
मेरा शरीर
जलसा मनाया करता था,
जब भी मैं
परेशान हो जाता था 
तुम्हारी मुस्कान
सब कुछ भूला दिया करती थी,
वो सुनहरा वक़्त
भुलाये नहीं भूलता 
जब हमारा
प्यार और हम साथ में
जवां हो रहें थे,
तुम्हारी हर आवाज
हर अदा
जब मुझें तुम्हारी तरफ
खींच लेती थी
और मैं बड़ी मुश्किल से
लौट पाता था अपने वर्तमान में,
उन बातों को बीते चौदह बरस 
हो गए
मगर
सबकुछ ज्यों का त्यों
हूबहू याद है
जैसे कल की ही बात है,
क्या फिर से
तुम आओगी?
आकर मुस्कुरावोगी?
आँखों से बतियाओगी?
मेरे बुरे वक़्त में
मेरा हाथ थामोगी?
सब कुछ भूलकर
माथा चूमकर
क्या तुम मुझें गले लगाओगीं?

नीरज 'थिंकर'

Tuesday 18 January 2022

अतीत कि बातें

 भीड़ से नजरें चुराकर

जब मैं तुम्हारा

हाथ थाम कर चलता था

बेखबर हो दुनिया से जब

मैं तुमको बाहों में भरता था

अनगिनत बातों का कारवाँ 

जब तुम्हें देखते हुए बढ़ता था

तुम्हारी आँखें बिन बोले ही

बहुत कुछ कहती थी जब

इन्हीं सब सिलसिलों के बीच

हम जब बिछड़ते थे

आँखें दोनों की नम होकर

कुछ न ज़ब कह पाती थी

दो विपरीत दिशाओं में मुड़कर

जब हम एक दूसरे की नजरों से

गायब हो जाते थे

मैं अपनी मंज़िल पर पहुंचने तक

तुझको ही सोचता रहता था

और तू जब अपनी मंज़िल पहुंच कर

उन साथ बिताये पलों को याद करते हुए

कहती थी 'वापस कब आओगे, मिलने,

इन सब लम्हों को दौहराने ".

तब मैं तुम्हें एक आश्वासन देता था

फ़िर से मिलने का,

मगर यें सब अब

एक अतीत बन चूका है

एक ख़्वाब जो हुआ है पूरा कभी

मगर अधूरा है जो शायद फ़िर कभी

मुक़म्मल होगा नहीं!!


द्वारा - नीरज 'थिंकर'

Sunday 16 January 2022

आज भी तुझे

 आज भी मैंने यादों के

गुलदस्ते में

संभाल रखा है तुझे

तेरी जुल्फों को उसमें आज

भी संवार रखा है मैंने,

तेरी महकती खुश्बू

और

मनभावक हँसी को

सझा रखा है मैंने

आज भी उसमें,

तेरी बातों को कुछ जो

तूने कहीं थी और कुछ

जो तू कहने वाली थी

सब सहज़ रखा है मैंने

अपने पास उस गुलदस्ते में


द्वारा - नीरज 'थिंकर'

अस्थिर सब

 जब सब कुछ ही

ख़तम हुआ जा रहा है

हर क्षण,

तों क्यों करें चिंता

कि

क्या बचेगा, क्या मिलेगा

क्या रहेगा?

जब दूरी तुम्हारी और मेरी

हर पल, निरंतर बढ़ती ही

जा रही है

तों फ़िर क्यों जाने से रोकने

कि असफल कोशिश करें

क्योंकि यहाँ कुछ भी तों

रुकेगा नहीं, कुछ भी तों

ठहरेगा नहीं

चलता रहेगा सब कुछ

अपनी गति से,

हर वो चीज़

जो हम देख सकते है

महसूस कर सकते है

उसकी आहट पा सकते है

वो

खर्च ही तों हो रही है

वो पुराने बचपन के दिन

वो खेल, वो परिवार, वो लोग,

वो घर, वो मोहल्ला, वो स्कूल,

वो साथी,

उनसब में बहुत कुछ छूट गया 

तों बहुत कुछ बदल गया 

मगर

कुछ भी तों पहले जैसा नहीं

रहा है ना,

और जो अभी है जितना भी

जैसा भी जिस किसी का भी

सब बदलेगा बल्कि बदल रहा है

सब कुछ क्षणिक है

और यहीं सत्य है

तों क्यों करें चिंता किसी

के जाने की!!


द्वारा - नीरज 'थिंकर'

पहले कभी

 इतना जिर्ण-शीर्ण मैं

पहले तो कभी न था

बारिश आयी

धुप खिली

पतझड़ आया

ठंडी बयार चली

गर्म हवाओं ने सताया

दिन गुजरा

रात ढली

सब कुछ बदला

मगर

पहले कभी तुम इतने तो

न बदले थे

और न ही

पहले कभी

मैं इतना गुमशुम हुआ था!!


द्वारा - नीरज 'थिंकर'

रिश्ते

 कितनी आसानी से टूट

जाते है रिश्ते

जिन्हें काफ़ी वक़्त लगता है 

बनने में,

जिन्हें संजोयाँ जाता है 

 बड़े प्यार से

भावनाएँ सींची जाती है जिनमें

बहुत ही इत्मीनान से 

कितने पल गुजरते है 

कितनी यादे बनती है 

सब कुछ इतना विशाल होता है

फ़िर क्षण भर में

कैसे धराशायी हो जाता है ?


द्वारा - नीरज 'थिंकर'

मैं अकेला हूँ

 इतने बड़े संसार में

सब कोई है जहाँ शुभचिंतक

मालूम नहीं क्यों फ़िर भी

मैं हूँ अकेला,

चारों तरफ भागदौड़ है

थमते नहीं है लोग

वहीं मैं रुका हुआ

अकेला क्यों हूँ,

सबकों कुछ न कुछ पाने

और बनाने कि चिंता है

मैं चिंतित हूँ कि

मैं अकेला क्यों हूँ,

माँ है, पिताजी है,

दादी जी है, दादाजी है

बहनें है उनके बच्चे है

भुआ है फूफा जी है

उनके बच्चे है और

उनके भी बच्चे है

सब है..

मगर मैं अकेला हूँ

यहाँ दूर, बहुत दूर जहाँ

सिर्फ़ मैं हूँ...सिर्फ़ मैं हूँ!!


नीरज 'थिंकर'

घर की याद किसको नहीं आती है !

घर की याद किसको नहीं आती है, चाहे घर घास-फुस का हो या फ़िर महलनुमा हो घर की याद किसको नहीं आती है, जहाँ माँ हर वक़्त राह देखती हो, पिता जहाँ ख़...