नहीं आती है,
चाहे घर घास-फुस का
हो
या
फ़िर महलनुमा हो
घर की याद किसको
नहीं आती है,
जहाँ माँ हर वक़्त राह
देखती हो,
पिता जहाँ ख़ुद को भूल
सबकी फ़िक्र करते हो,
जहाँ बूढ़ी दादी
और
बुढ़े दादाजी जी
क्षण-क्षण में चिंतित होकर
रोने लगते हो,
पड़ोसी जहाँ तमाम लड़ाइयो
के बावजूद
सुःख-दुःख में शरीक होते हो,
तब
घर की याद किसको
नहीं आती है?
द्वारा - नीरज 'थिंकर'
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