कहानियों और किस्सों के बिच
मैं भी थोड़ा बनता हूँ
और बिगड़ता हूँ,
आते जाते राहगीरों में ख़ोज
ख़ुद का अक्ष थोड़ा
मैं भी राहगीर बनता हूँ,
किसी जगह को अपना बना
मैं एक सांस हर रोज उसमें
भरता हूँ,
किसी अनजान को देख
कुछ कुछ उसको अपने
किसी खास से जोड़
मैं अंदर ही अंदर मुस्कुराता हूँ,
कभी किसी चीज़ को देखकर
कुछ स्मृतियाँ जब लौट आती है
तब मैं थोड़ा रोता हूँ तो
उसी पल थोड़ा हंसता हूँ,
जब सब कुछ
नीरस लगने लगता है
तब
किताबों को रख कर दूर
ख़ुद को पढ़ने की
कोशिश मैं करता हूँ,
मैं हर रोज थोड़ा जीता हूँ
थोड़ा मरता हूँ!!
द्वारा- नीरज 'थिंकर'