Friday 21 September 2018

कविता - समाज और वो

उसकी आँखों में  आंसू 
समाज की देन है ,
इच्छाओ का महल 
न बन पाना 
उसमे सजाये ख़्वाबो 
का न सज पाना 
इन सब का ज़िम्मेदार 
समाज ही तो है ,
वो समाज जो 
खुद तो न कर सका प्रेम 
     न दे सका प्रेम 
     न ले सका प्रेम 
मगर 
दुसरो की इच्छाओ को 
पूरा होते देख 
वह चैन की साँस भी तो 
नहीं ले सका ,
खुशियों को म्रतप्राय करना 
समाज की ही तो देन है |

नीरज 'थिंकर'

कविता - तुम एक कविता हो

तुम एक ख़ूबसूरत - सी 
कविता हो माही,
तुम्हारी आँखे 
अलंकार - सी चमकती है ,
तुम्हारे होंठ 
सौन्दर्य का भाव है माही ,
तुम्हारी चाल 
छंदों से लदी - सी चलती है ,
तुम्हारी बातें 
चाँद की उपमा-सी 
इठलाती है,
तुम्हारी हँसी 
कविता का सार है माही | 

द्वारा- नीरज 'थिंकर'


घर की याद किसको नहीं आती है !

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