Tuesday 31 December 2019

कविता-बहुत देर तक

बहुत देर तक
बिना रुके,
बिना थके
शहर की हर गली में
चलता रहा ...,
उन नज़ारों को
आँखों में बसाता रहा.....
मेरा ये चलना
और शहर की
ख़ाक छानना
व्यर्थ तो नहीं है
मैं चलकर
क़दमों से उन
एहसासों को
भर लेना चाहता था
जिसमें कभी हर्ष
हर्षोंलासित हो
झूम जाया करती होगी,
उसके उन तमाम
सुनहरे पलों को
मैं अपने साथ ले जाना
चाहता था
इन्हें ले जाकर
 अपने में समाकर
कुछ नूतन रूप में
उसके संग जीना चाहता था
इसीलिए तो मैं
बिना रुके,बिना थके
साँसों को थामे
बेखोफ,बेपरवाह हो
चलता रहा ।

द्वारा - नीरज थिंकर

Sunday 17 November 2019

कविता - वो दो दिन

वो शहर से
दो दिन के लिए
बाहर था,
शायद किसी दूसरे
शहर में
हो रही सेना की भर्ती में
दोड़ने गया हुआ था,
यें दो दिन उसकी
माशूक़ा के लिए
दो बरस से बीतें,
प्रेमी के शहर आने
से पहले ही
वो घंटो पहले
स्टेशन पर जाकर
 उसका इंतज़ार
करने लग गयी,
माशूक़ के ट्रेन से
उतरते ही वो उससे
लिपट पड़ी
गोया
उसे इन दो दिनों में
जुदाई का एहसास
हो गया हो
और वो अब मानो
एक क्षण के लिए भी
उसे दूर नहीं जाने
देना चाहती हो !

द्वारा- नीरज 'थिंकर'

Saturday 9 November 2019

कविता- बुद्धा तुम बहुत याद आते हो




इस क्षण में
बुद्धा तुम
बहुत याद आते हो,
चारो तरफ फ़ैले
तनाव में भी
तुम सुकून एक
दे जाते हो,
जब हर कोई
आतुर है
मारने एक-दूजे को
तब तुम ही
संयमता बरतना
सिखाते हो,
नफ़रतों की आँधियाँ
जब
सबकों उड़ायें जाती है
तब
तुम ही हो बुद्धा
जो मुझें बचाकर
लाते हो,
भीड़ का हिस्सा बनना
चाहूँ भी तो,
तुम
हर दफ़ा
अपनी शरण में
खींच लाते हो,
जो हो रहा है
बीत जायेगा
उन्मादों का भंवर
भी बिखरेगा
तुम्हारी नश्वरता की
यें बातें
हर वक़्त मुझें
उन्मादी होने से
बचाती है,
इस क्षण में
बुद्धा तुम
बहुत याद आते हो ||

द्वारा- नीरज 'थिंकर'

Tuesday 5 November 2019

कविता - क्या तुम जानते हो ?


क्या तुम 
एक शहर में 
रहकर भी 
न मिल पाने का 
दर्द जानते हो ?
सामने होने पर भी 
गले न मिल पाने की 
चाह को दबाने 
की घुटन 
क्या तुम महसूस 
कर सकते हो ?
चंद फ़ासलों की 
दूरी को 
घंटों फोन पर 
बतियाकर पूरी 
करने की 
नाकामयाब कोशिश 
बार-बार करना,
फिर 
एक आलिंगन की 
चाह लिए 
उसकी डगर चलना 
अंततः झलक पाकर 
ही 
लौटकर आने का 
गम 
क्या तुम जानते हो ?

द्वारा- नीरज 'थिंकर'

Saturday 6 July 2019

मनोरम मुस्कान तेरी

तेरी इस मनोरम
मुस्कान से लिपटीं
खुशियाँ
जिसमें बेफ़िक्री है,
उन्माद है, एक अल्हड़पन
भी है,
को पाने के लिए
तुझपर
न्योछावर कर सकता हूँ
सबकुछ अपना,
बन सकता हूँ
अलमस्त फ़क़ीर,
ज़ी सकता हूँ सिर्फ
तेरी इस तिलिस्म-सी
मुस्कान के सहारे,
चूका सकता हूँ
इस मंदिम मुस्कान
की क़ीमत
बेचकर सब कुछ अपना ,
बन सकता हूँ कर्जदार
जीवन भर तेरा
सिर्फ़ मुर्छित कर देने वाली
तेरी इस मुस्कान पर

द्वारा- नीरज 'थिंकर' 

घर की याद किसको नहीं आती है !

घर की याद किसको नहीं आती है, चाहे घर घास-फुस का हो या फ़िर महलनुमा हो घर की याद किसको नहीं आती है, जहाँ माँ हर वक़्त राह देखती हो, पिता जहाँ ख़...