Saturday 15 December 2018

ठण्ड और वो

ठिठुरन पैदा कर देने 
वाली सर्दी में भी 
उसका,
सिर्फ कंधो तक ही 
चादर को ओढना,
ऐसा नहीं है कि 
उसे ठण्ड नहीं लगती है 
इसका अंदाजा उसके 
दोनों हाथों का जेब में 
निरंतर सिकुड़ते हुए रहने से 
बख़ूबी लगाया जा सकता है, 
पर 
बस उसे खुले बालों में 
रहना अच्छा लगता है,
और साथ ही 
लोगों को इस कड़ाके की 
ठण्ड में 
घायल करना भी |

द्वारा - नीरज 'थिंकर'

Friday 21 September 2018

कविता - समाज और वो

उसकी आँखों में  आंसू 
समाज की देन है ,
इच्छाओ का महल 
न बन पाना 
उसमे सजाये ख़्वाबो 
का न सज पाना 
इन सब का ज़िम्मेदार 
समाज ही तो है ,
वो समाज जो 
खुद तो न कर सका प्रेम 
     न दे सका प्रेम 
     न ले सका प्रेम 
मगर 
दुसरो की इच्छाओ को 
पूरा होते देख 
वह चैन की साँस भी तो 
नहीं ले सका ,
खुशियों को म्रतप्राय करना 
समाज की ही तो देन है |

नीरज 'थिंकर'

कविता - तुम एक कविता हो

तुम एक ख़ूबसूरत - सी 
कविता हो माही,
तुम्हारी आँखे 
अलंकार - सी चमकती है ,
तुम्हारे होंठ 
सौन्दर्य का भाव है माही ,
तुम्हारी चाल 
छंदों से लदी - सी चलती है ,
तुम्हारी बातें 
चाँद की उपमा-सी 
इठलाती है,
तुम्हारी हँसी 
कविता का सार है माही | 

द्वारा- नीरज 'थिंकर'


Thursday 19 April 2018

कविता - हंसी कैसे आएगी ?

इच्छाओ को जब 
दबा दिया जाए 
तो 
हंसी कैसे आएगी ? 
स्वतंत्रता जब 
छीन ली जाए 
लिंग के आधार पर 
तो 
हंसी कैसे आएगी ?
सपने जब 
टूट जाए सारे ,
आशाएं जब 
धूमिल हो जाए 
तो 
हंसी कैसे आएगी ?
मंजिल की और
बढ़ने वाले कदमों को जब 
बढ़ने से पहले ही
काट दिया जाए 
तो 
हंसी कैसे आएगी ?
इमारत जब 

बनने से पहले ही 
ढहा दी जाए 
और 
उसमे निर्मित ख़्वाबो 
का जब 
क़त्ल कर दिया जाए 
तो 
हंसी कैसे आएगी ?
कुछ करने के जुनून 
का जब 
पितृसत्तात्मक समाज द्वारा 
गला घोंट दिया जाए ,
परम्परा से हटकर 
लिए गए फैसले को जब 
पैरों तले रौंद दिया जाए 
तो 
हंसी कैसे आएगी ?

द्वारा - नीरज 'थिंकर'

घर की याद किसको नहीं आती है !

घर की याद किसको नहीं आती है, चाहे घर घास-फुस का हो या फ़िर महलनुमा हो घर की याद किसको नहीं आती है, जहाँ माँ हर वक़्त राह देखती हो, पिता जहाँ ख़...