भीड़ से नजरें चुराकर
जब मैं तुम्हारा
हाथ थाम कर चलता था
बेखबर हो दुनिया से जब
मैं तुमको बाहों में भरता था
अनगिनत बातों का कारवाँ
जब तुम्हें देखते हुए बढ़ता था
तुम्हारी आँखें बिन बोले ही
बहुत कुछ कहती थी जब
इन्हीं सब सिलसिलों के बीच
हम जब बिछड़ते थे
आँखें दोनों की नम होकर
कुछ न ज़ब कह पाती थी
दो विपरीत दिशाओं में मुड़कर
जब हम एक दूसरे की नजरों से
गायब हो जाते थे
मैं अपनी मंज़िल पर पहुंचने तक
तुझको ही सोचता रहता था
और तू जब अपनी मंज़िल पहुंच कर
उन साथ बिताये पलों को याद करते हुए
कहती थी 'वापस कब आओगे, मिलने,
इन सब लम्हों को दौहराने ".
तब मैं तुम्हें एक आश्वासन देता था
फ़िर से मिलने का,
मगर यें सब अब
एक अतीत बन चूका है
एक ख़्वाब जो हुआ है पूरा कभी
मगर अधूरा है जो शायद फ़िर कभी
मुक़म्मल होगा नहीं!!
द्वारा - नीरज 'थिंकर'